ग्यारह को ज्योतिष की नजर से बहुत ही शुभ माना जाता है जिन लोगो की कुंडली मे ग्यारहवा भाव गुरु से देखा जाता है या लगनेश ग्यारहवे भाव मे गुरु की तरह से होते है उनके लिये कहा जाता है कि जीवन कोई भी परेशानी भले ही आजाये लेकिन उन्हे कष्ट अधिक सहन नही करने पडते है। गुरु के लिये जो विचार भारतीय संस्कृति से देखे जाते है वे पहले तो सम्बन्धो के लिये देखे जाते है उसके बाद गुरु को धर्म की द्रिष्टि से देखने पर पता होता है कि जीवन व्यक्ति के अन्दर कितनी दया है,यानी गुरु अगर ठीक है तो जातक के अन्दर दया का भाव भी होगा और जातक रीति नीति कानून आदि को समझ कर चलेगा वह एक बार भले ही जगत के कानूनो से दूर हो जाये लेकिन वह अपने अनुसार प्रकृति के कानूनो को मानने के लिये जरूर मजबूर हो जायेगा। कालपुरुष के अनुसार वैसे तो ग्यारहवा भाव शनि का कहलाता है और गुरु का प्रभाव इस भाव मे आकर ठंडा हो जाता है लेकिन वह किसी भी प्रकार से जातक की लगन को जातक के तीसरे भाव को जातक के पंचम भाव को तथ सप्तम को अपनी द्रिष्टि देने के कारन इन भावो को सुचारु रूप से धार्मिक बना देता है इन भावो के कारको को धर्म और कानून के मामले मे स्वच्छ रखता है अगर किसी प्रकार से गुरु का गोचर से भी किसी भी भाव यानी वह त्रिक हो या पणफ़र हो अथवा अपोक्लिम हो गुरु उन भावो के रूप को खराब से भी अच्छा फ़ल दिलाने की कोशिश करता है। ग्यारहवा गुरु बडे भाई का कारक होता है लेकिन अगर दो भाई हो और ग्यारहवा गुरु हो तो बडे भाई की औकात भले ही बडी हो लेकिन एक स्थान पर एक ही रहेगा और दूसरा अपने अनुसार समानन्तर से एक स्थान पर नही रखने देगा। प्रस्तुत कुंडलियों मे एक लगन मीन है और दूसरी लगन धनु है दोनो ही लगनो के स्वामी गुरु है और गुरु का स्थान दोनो ही लगनो मे ग्यारहवे भाव मे ही है,इस प्रकार के दोनो ही जातको के अन्दर एक सा रूप मिलने के कारण दोनो जातको का व्यवहार समाज रूप रेखा और पारिवारिक स्थिति एक सी ही मानी जायेगी। लेकिन भाव का बदलाव राशि का प्रभाव अपने अपने स्थान पर बदल जायेगा,एक मीन लगन का होने के कारण अपने लिये विदेश और विदेशी रूप से अपने धर्म नीति तथा सिद्धान्तो को फ़ैलाने वाला मिलेगा तथा दूसरा धनु लगन का होने के कारण अपने परिवार समाज रहने वाले देश और प्रान्त के लिये अपने कार्यों को करेगा यानी एक घर मे दूसरा बाहर अपनी औकात को एक बडप्पन के रूप मे प्रकाशित करने के लिये जाना जायेगा।
पहली कुंडली मे अगर गुरु का रूप मकर राशि का देखते है तो यह भी समझ मे आता है कि दोनो भाइयों मे एक की ही औकात मिलती है मकर का गुरु नीच राशि का होता है और वह होने मे तो दो भाइयों की उपाधि को दर्शित करता है लेकिन अपनी योजना से एक भाई की ही औकात रहने देता है कभी कभी इस गुरु के कारण या तो एक भाई देश से दूर चला जाता है और या वह अक्सर अपनी औकात को परिवार के अनुसार नही बनापाता है जैसे एक भाई की पुरुष सन्तान होना और दूसरे के केवल स्त्री सन्तान का ही होना या किसी प्रकार से सन्तान का होना ही नही अथवा शादी विवाह से दूर हो जाना भी माना जाता है। पहली कुंडली का गुरु ग्यारहवे भाव मे बैठ कर लगन मे बैठे शनि केतु को देख रहा है तथा सप्तम मे बैठे राहु और चन्दमा को भी देख रहा है। कन्या राशि मे चन्द्रमा और राहु के आने से जातक के अन्दर एक तो सेवा भावना पैदा हो जाती है दूसरे वह अपने लिये कम तथा दूसरो के लिये अपने जीवन को अधिक लगाने लगता है,लगन मे शनि के होने से और केतु के साथ होने से तथा ग्यारहवे भाव के गुरु के द्वारा बल देने के कारण वह अपने जीवन को परस्वार्थ के लिये खर्च करना शुरु कर देता है,साथ ही उसके लिये परिवार घर पिता माता आदि से कोई लेना देना नही रह जाता है वह केवल कार्य करना जानता है और शंका से गृसित जनता का दुख निवारण करने मे अपने जीवन को लगा देता है। गुरु का केतु पर असर देने के कारण जातक किसी विदेशी सन्त से अपनी लगन को लगा लेता है और वह लगन अक्सर मोक्ष वाले कारणो के लिये होती है यह भी माना जाता है कि गुरु अपने ही भाव को देखने के कारण तथा मीन राशि जो वास्तव मे मोक्ष की राशि के लिये अपनी योजना को केवल लोगो के लिये शांति के कार्यों के लिये भी करता हुआ पाया जाता है शनि मीन राशि मे किसी संस्था या समुदाय के लिये भी अपनी योजना को प्रसारित करता है साथ ही जब जातक की उम्र बारहवी साल की होती है तो जातक के अन्दर एक भाव पैदा हो जाता है कि वह लोगो के लिये ही अपनी जीवन शैली को लेकर आया है उसे अपने लिये कोई भेद नही होता है अगर जातक किसी कारण से रुक जाता है तो वह अक्सर मामा या मौसा के पास अपने जीवन को दत्तक पुत्र की तरह से बिताना शुरु कर देता है या उसका कोई रिस्तेदार ही उसके नाम से मृत्यु के बाद की सम्पत्ति को देकर चला जाता है इस प्रकार से जातक का कार्य केवल उस सम्पत्ति या समुदाय या संस्था को संभालने के लिये हो जाता है जिससे उसे कोई कमाई या किसी प्रकार के घाटे मुनाफ़े से कोई लेना देना नही होता है। सप्तम मे विराजमान चन्द्रमा को देखे जाने के कारण भी गुरु अपने बल से उस जनता को या उस व्यक्ति को अपनी अहमियत देता है जो लोग केवल सेवा से अपने को जोड कर रखते है। अगर कोई चालाकी या किसी प्रकार के फ़रेब से अपने को जोड कर रखना चाहता है तो जातक उस व्यक्ति या समुदाय से दूर चला जाना चाहता है चाहे वह अपने खुद के लोग ही क्यों न हों। अगर कोई जरा सा भी साथ दे जाये तो इस प्रकार के लोग अक्सर सनातन धर्म या ज्योतिष आदि मे भी अपना नाम करते है।
दूसरी कुंडली मे गुरु ग्यारहवे भाव मे है लेकिन वह शुक्र की राशि तुला मे है,यह भी एक विचित्र बात देखने मे आती है कि शुक्र गुरु के घर मे है और गुरु शुक्र के घर मे है। इस परिवर्तन योग के कारको को देखने से समझ मे आता है कि जातक अपनी पत्नी के द्वारा शासित होता है या पत्नी परिवार मे जाकर अपनी औकात को बडे के रूप मे प्रदर्शित करता है जैसे दो बहिनो के अन्दर बडी बहिन का पति होना और भाई नही होने के कारण ससुराल की सम्पत्ति को भोगना और बडप्पन बनाकर रखना। इस प्रकार से बडा भाई अपने पिता के स्थान पर और छोटा भाई अपनी ससुराल मे अपना बडप्पन बनाकर रखना भी माना जा सकता है। गुरु जब शुक्र की राशि तुला मे आजाता है तो जातक अक्सर अपनी शादी भी देर से करता है और वह सम्बन्धो के मामले मे भी बेलेन्स करने की अभूतपूर्व क्षमता को रखता है। शुक्र के गुरु के घर मे आजाने से भी जातक की पत्नी ही घर के लक्ष्मी सुख की कारक होती है वह अपने अनुसार शादी के बाद घर पर आकर अपने कार्यों और व्यवहारो से घर को सम्पत्ति से पूर्ण करने वाली होती है।यही बात परिवार की सुख सम्पाति के लिये भी मानी जाती है इस प्रकार के योग देखने के बाद यही पाया जाता है कि जातक पैदा तो अपने परिवार मे हुया है लेकिन उसके सुख को पत्नी परिवार के लोग भोगते देखे जाते है। इसके अलावा इस गुरु से दूसरी कुंडली मे मंगल के पंचम मे होने के कारण भी एक अन्दाज लगाया जाता है कि जातक की सबसे बडी दिक्कत अपने बडे भाई की मर्यादा को ठीक रखने की होतीहै अगर जातक का बडा भाई जो गुरु के रूप मेहै और वह अपने मंगल को जरा सा भी बिगाड लेता है तो छोटे भाई के द्वारा उसकी पत्नी को अथवा उसकी सम्पत्ति को भोगा जाता है यह एक प्रकार से दूषित कर्मो के रूप मे भी जाना जाता है यही बात तब और सही देखने के लिये मिलती जब शुक्र का नवम पंचम का योग मंगल से मिल जाता है इस प्रकार से कभी तो भाई की पत्नी शुक्र बनकर घर की बडी भाभी बन जातीहै और कभी वह देवर के साथ अपने जीवन को बिताने लगती है इस प्रकार के योग शुक्र मंगल की नवम पंचम की युति और गुरु शुक्र के परिवर्तन योग के अन्दर ही देखा जा सकता है,लेकिन बडा भाई अगर शादी नही करता है तो यह योग एक प्रकार से बडे आश्रम आदि के रूप मे भी देखा जा सकता है।
पहली कुंडली मे अगर गुरु का रूप मकर राशि का देखते है तो यह भी समझ मे आता है कि दोनो भाइयों मे एक की ही औकात मिलती है मकर का गुरु नीच राशि का होता है और वह होने मे तो दो भाइयों की उपाधि को दर्शित करता है लेकिन अपनी योजना से एक भाई की ही औकात रहने देता है कभी कभी इस गुरु के कारण या तो एक भाई देश से दूर चला जाता है और या वह अक्सर अपनी औकात को परिवार के अनुसार नही बनापाता है जैसे एक भाई की पुरुष सन्तान होना और दूसरे के केवल स्त्री सन्तान का ही होना या किसी प्रकार से सन्तान का होना ही नही अथवा शादी विवाह से दूर हो जाना भी माना जाता है। पहली कुंडली का गुरु ग्यारहवे भाव मे बैठ कर लगन मे बैठे शनि केतु को देख रहा है तथा सप्तम मे बैठे राहु और चन्दमा को भी देख रहा है। कन्या राशि मे चन्द्रमा और राहु के आने से जातक के अन्दर एक तो सेवा भावना पैदा हो जाती है दूसरे वह अपने लिये कम तथा दूसरो के लिये अपने जीवन को अधिक लगाने लगता है,लगन मे शनि के होने से और केतु के साथ होने से तथा ग्यारहवे भाव के गुरु के द्वारा बल देने के कारण वह अपने जीवन को परस्वार्थ के लिये खर्च करना शुरु कर देता है,साथ ही उसके लिये परिवार घर पिता माता आदि से कोई लेना देना नही रह जाता है वह केवल कार्य करना जानता है और शंका से गृसित जनता का दुख निवारण करने मे अपने जीवन को लगा देता है। गुरु का केतु पर असर देने के कारण जातक किसी विदेशी सन्त से अपनी लगन को लगा लेता है और वह लगन अक्सर मोक्ष वाले कारणो के लिये होती है यह भी माना जाता है कि गुरु अपने ही भाव को देखने के कारण तथा मीन राशि जो वास्तव मे मोक्ष की राशि के लिये अपनी योजना को केवल लोगो के लिये शांति के कार्यों के लिये भी करता हुआ पाया जाता है शनि मीन राशि मे किसी संस्था या समुदाय के लिये भी अपनी योजना को प्रसारित करता है साथ ही जब जातक की उम्र बारहवी साल की होती है तो जातक के अन्दर एक भाव पैदा हो जाता है कि वह लोगो के लिये ही अपनी जीवन शैली को लेकर आया है उसे अपने लिये कोई भेद नही होता है अगर जातक किसी कारण से रुक जाता है तो वह अक्सर मामा या मौसा के पास अपने जीवन को दत्तक पुत्र की तरह से बिताना शुरु कर देता है या उसका कोई रिस्तेदार ही उसके नाम से मृत्यु के बाद की सम्पत्ति को देकर चला जाता है इस प्रकार से जातक का कार्य केवल उस सम्पत्ति या समुदाय या संस्था को संभालने के लिये हो जाता है जिससे उसे कोई कमाई या किसी प्रकार के घाटे मुनाफ़े से कोई लेना देना नही होता है। सप्तम मे विराजमान चन्द्रमा को देखे जाने के कारण भी गुरु अपने बल से उस जनता को या उस व्यक्ति को अपनी अहमियत देता है जो लोग केवल सेवा से अपने को जोड कर रखते है। अगर कोई चालाकी या किसी प्रकार के फ़रेब से अपने को जोड कर रखना चाहता है तो जातक उस व्यक्ति या समुदाय से दूर चला जाना चाहता है चाहे वह अपने खुद के लोग ही क्यों न हों। अगर कोई जरा सा भी साथ दे जाये तो इस प्रकार के लोग अक्सर सनातन धर्म या ज्योतिष आदि मे भी अपना नाम करते है।
दूसरी कुंडली मे गुरु ग्यारहवे भाव मे है लेकिन वह शुक्र की राशि तुला मे है,यह भी एक विचित्र बात देखने मे आती है कि शुक्र गुरु के घर मे है और गुरु शुक्र के घर मे है। इस परिवर्तन योग के कारको को देखने से समझ मे आता है कि जातक अपनी पत्नी के द्वारा शासित होता है या पत्नी परिवार मे जाकर अपनी औकात को बडे के रूप मे प्रदर्शित करता है जैसे दो बहिनो के अन्दर बडी बहिन का पति होना और भाई नही होने के कारण ससुराल की सम्पत्ति को भोगना और बडप्पन बनाकर रखना। इस प्रकार से बडा भाई अपने पिता के स्थान पर और छोटा भाई अपनी ससुराल मे अपना बडप्पन बनाकर रखना भी माना जा सकता है। गुरु जब शुक्र की राशि तुला मे आजाता है तो जातक अक्सर अपनी शादी भी देर से करता है और वह सम्बन्धो के मामले मे भी बेलेन्स करने की अभूतपूर्व क्षमता को रखता है। शुक्र के गुरु के घर मे आजाने से भी जातक की पत्नी ही घर के लक्ष्मी सुख की कारक होती है वह अपने अनुसार शादी के बाद घर पर आकर अपने कार्यों और व्यवहारो से घर को सम्पत्ति से पूर्ण करने वाली होती है।यही बात परिवार की सुख सम्पाति के लिये भी मानी जाती है इस प्रकार के योग देखने के बाद यही पाया जाता है कि जातक पैदा तो अपने परिवार मे हुया है लेकिन उसके सुख को पत्नी परिवार के लोग भोगते देखे जाते है। इसके अलावा इस गुरु से दूसरी कुंडली मे मंगल के पंचम मे होने के कारण भी एक अन्दाज लगाया जाता है कि जातक की सबसे बडी दिक्कत अपने बडे भाई की मर्यादा को ठीक रखने की होतीहै अगर जातक का बडा भाई जो गुरु के रूप मेहै और वह अपने मंगल को जरा सा भी बिगाड लेता है तो छोटे भाई के द्वारा उसकी पत्नी को अथवा उसकी सम्पत्ति को भोगा जाता है यह एक प्रकार से दूषित कर्मो के रूप मे भी जाना जाता है यही बात तब और सही देखने के लिये मिलती जब शुक्र का नवम पंचम का योग मंगल से मिल जाता है इस प्रकार से कभी तो भाई की पत्नी शुक्र बनकर घर की बडी भाभी बन जातीहै और कभी वह देवर के साथ अपने जीवन को बिताने लगती है इस प्रकार के योग शुक्र मंगल की नवम पंचम की युति और गुरु शुक्र के परिवर्तन योग के अन्दर ही देखा जा सकता है,लेकिन बडा भाई अगर शादी नही करता है तो यह योग एक प्रकार से बडे आश्रम आदि के रूप मे भी देखा जा सकता है।
ज्योतिष के रहस्य
ReplyDeleteSaturday, 10 March 2012
"पहली कुंडली में ग्यारहवें घर में बैठा गुरु लग्न में शनि और केतु को देख रहा है " प्रभु बात कुछ समझ में नहीं आई.जहाँ तक ज्योतिष में पड़ा है गुरु अपने स्थान से पांच सात व नवम स्थान को ही देखता है.
ललितमोहनजी गुरु शनि राहु केतु अपनी तीसरी पराक्रम की द्रिष्टि को प्रयोग करते है,मंगल अपनी चौथी द्रिष्टि से कन्ट्रोल करने वाली द्रिष्टि को प्रयोग करता है,तथा आठवे से जोखिम से बचाने का कारण भी बनता है.बाकी के ग्रह सप्तम की द्रिष्टि से अपने बलो को प्राप्त भी करते है और प्रेषित भी करते है.
ReplyDeleteSunday, 11 March 2012
ReplyDeleteआप शायद जैमिनी के सिद्धांत सूत्र की बात कर रहे हैं. किन्तु इसमें भी ग्रह के भाव पर दृष्टी के बारे में कुछ नहीं बताया गया है.अपितु इसके अनुसार तो राशि विशेष में बैठे ग्रह की राशि मात्र पर भी दृष्टी होती है.ग्रह वहां जो भी हों.लघु -पाराशरी सिद्धांत जो की इस सन्दर्भ में सर्वत्र उपयोग में लाया जाता है,उसमे भी गुरु की तृतिया दृष्टि का उल्लेख कहीं नहीं मिलता .रही बात पश्चिमी सिद्धांत की तो इसके अनुसार तो कोणात्मक दृष्टी की बात कही गयी है.ग्रह जिस भी भाव में होता है उसी भाव से घड़ी की सुइयों के अनुकूल-प्रतिकूल दोनों ओर ३०-६०-९० डिग्री के भावों पर शुभ दृष्टी रखता है,४५-९०-१३५--१५०-१८० डिग्री पर अशुभ व ७२-१४४ डिग्री पर दृष्टी रख उत्तम फल प्रदान करता है.आप किस सिद्धांत के अनुसार गुरु की तृतिया दृष्टि की बात कह रहे हैं ?
ललित मोहन जी "नारदपुराण" "त्रिस्कन्ध ज्योतिष" का "जातक स्कन्ध" में ग्रहों की द्रिष्टि को पढिये.
ReplyDeleteGuru ji ko pranam, guru ji yeh dono kundliyan do behno ki hai, Pehli Badi Behan ki aur doosri uski chhoti behan ki, kripa kar itni jankari dekar kritarth kare ki inki padai, likhai, swasthya, marriage life aur inka career kaisa hoga, badi wali behan ke dono hatho mein bahut adhik rekhaye hai jise aap ek bhramit jaal bhi keh sakte hai, aur kya in dono ko koi bhai bhi milega kya? kripa kar ke spasth kar apka Abhar.
ReplyDeleteबडी बहिन के छोटे भाई बहिनो का मालिक शुक्र है इसलिये छोटी बहिन मिली है छोटी बहिन की कुंडली मे छोटे भाई बहिन का मालिक शनि है इसलिये देरी से आगे के भाई बहिन का आना मिलता है.लेकिन सप्तम का चन्द्रमा तीन बहिनो की सोच को देता है.
ReplyDeletenamaskar pandit ji
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