Saturday, June 2, 2012

वृश्चिक का सप्तम केतु और अष्टम का गुरु वक्री

वक्री गुरु के मामले मे मैने कई बार लिखा है इस बार भी आपको बता दूँ कि वक्री गुरु उस जीव के सामाजिक व्यवहारिक धार्मिक आदि सभी क्रिया कलापों को बदल कर दिखाने वाला होता है,पिता अगर अपने धर्म को लेकर चलने वाला होता है तो पुत्र जिसका वक्री गुरु होता है वह अपनी भावना मे धर्म को केवल अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिये ही प्रयोग मे लेता है,पिता अगर किसी मन्दिर मे जाकर प्रार्थना करता है कि हे ! प्रभु आपकी शरण मे हूँ,आप ही रक्षा करना,तो पुत्र की कामना होगी कि हे प्रभु ! मेरे अमुक काम को पूरा कर दो,काम पूरा होते ही आपके मन्दिर मे वापस आऊंगा। यह सब केवल उन्ही कारणो के कारण होता है जिनके अन्दर सम्बन्ध और भौतिकता का बोलबाला होना होता है। एक साल मे तीन महिने के समय के लिये लगभग गुरु वक्री होता है और समाज मे एक चौथाई लोग इस वक्री गुरु के समय मे पैदा होकर समाज रिवाज नीति रीति से बिलग होकर चलने के लिये मजबूर होते है और इसी कारण से समाज के अन्दर विकृति भी पैदा होती है,विभिन्न प्रकार के बदलाव भी देखने को मिलते है।
अगर राहु लगन मे बैठ जाये और केतु सप्तम मे वृश्चिक राशि का होकर पुरुष की कुंडली मे हो तथा गुरु वक्री होकर स्वगृही चन्द्रमा के साथ अष्टम मे बैठ जाये तो समझ लेना चाहिये कि कुल का समाप्ति का समय आ गया है। वक्री गुरु अक्सर अपने प्रभाव के कारण जो भी कारण बनायेगा वह समाज नियम कानून आदि की तरफ़ जाने वाला नही होगा,जातक अपने बचपन मे इतना तेज हो जायेगा कि उसे कठिन से कठिन से कारण बहुत जल्दी याद हो जायेंगे जो बालक साल भर मे शिक्षा को पूरा करने मे अपनी बुद्धि को प्रयोग मे लायेगा वक्री गुरु वाला जातक उसी शिक्षा को तीन महिने मे पूरी करने के बाद आगे के क्लास मे जाने की युति बना लेगा। वह जिस जगह पर समाज मे धर्म मे पैदा हुआ है वह बाहर के कारणो मे अपने को बहुत ही आगे ले जाने वाला बन जायेगा और विदेशी भाषा संस्कृति तथा केवल शारीरिक सुख धन का सुख और अपने को दिखाने का सुख ही प्राप्त करने मे लगा रहेगा उसे अपने वंश चलाने या अपने कुल को बढाने मे कोई मतलब नही होगा। अगर पत्नी किसी कारण से मर्यादा वाली मिल जाती है तो जातक के सप्तम मे वृश्चिक के केतु के कारण काम सुख से पूर्ण नही हो पायेगी और उसे हिस्टीरिया जैसे रोग पैदा हो जायेंगे.धीरे धीरे जातक अपने पत्नी वाले माहौल से सामाजिक या कानूनी तौर पर दूर होने की कोशिश करेगा और जैसे ही दूर हुआ वह अपने समाज से बहुत दूर चला जायेगा।

3 comments:

  1. "केतु सप्तम मे वृश्चिक राशि का होकर पुरुष की कुंडली मे हो तथा गुरु वक्री होकर स्वगृही चन्द्रमा के साथ अष्टम मे बैठ जाये तो समझ लेना चाहिये कि कुल का समाप्ति कासमय आ गया है। " ऐसे समीकरण में मेरे अनुसार गुरु स्वग्रही हो रहा है.चंद्रमा तो यहाँ पराक्रमेश की भूमिका में होगा.

    ReplyDelete
  2. ललित मोहन जी छाठे भाव मे चन्द्रमा का लिखना था लेकिन गल्ती से शुक्र का नाम लिख गया है.इसी प्रकार से पढकर कोई गल्ती हो तो बताते रहिये,धन्यवाद.

    ReplyDelete
  3. गुरुवर,ये मामूली सी बात थी. जो लेखनी में हो ही जाती है.आपके लिखे को काट सकूँ ऐसा सामर्थ्य नहीं हैं मुझमे,अपितु आपके ज्ञान के सौवें हिस्से पर भी आ सका तो खुद को कृतार्थ समझूंगा.जैसे एकलव्य ने गुरु द्रोण को अपना इष्ट माना हुआ था वैसे ही मैं भी आपके लेखोंको पढ़ पढ़ कर बहुत कुछ प्राप्त करता हूँ.

    ReplyDelete