शव को छोटी इ की मात्रा लगाने के बाद शिव का रूप बनाता है और शव जो निराकार था वह शिव के साकार रूप में सामने आजाता है.प्रकृति का नियम है की खाली स्थान को भरने के लिए वह अपने स्वभाव से सभी कारणों को सामने करती है,वह हवा से मिट्टी आदि को खाली स्थान को भारती है,पानी से खाली स्थान को समतल बनाने के लिए मिट्टी आदि को भारती है,जब उसे समतल स्थान को एकाकार करने में शंका होती है तो वह सूर्य की गर्मी से अपनी शक्ति को प्रदान करने के बाद उस जमी हुयी मिट्टी आदि को कठोर बनाने के लिए पत्थर आदि के रूप में उपस्थित करती है,इस प्रकार से खाली स्थान जो शव स्वरुप था उसे एकाकार करने के लिए जल मिट्टी वायु अग्नि का प्रयोग करने के बाद एक नाम देती है वह नाम ही शक्ति के रूप में समझा जाने लगता है.शव नकारात्मक है और नकारात्मक में सकारात्मकता को पूर्ण करने के लिए शिव की मान्यता भी दी गयी है कोइ पौराणिक बात हो या कहानी हो यह अपनी अपनी बात तो बताने के लिए कोइ भी नाम दे कोइ भी स्थान का महत्व दे या कोइ भी धारणा को प्रदान करे लेकिन जो कारण है उसे कोइ भी सही रूप में तब तक नहीं समझ सकता है जब तक की उसे यह पता नहीं हो की आखिर में प्रकृति चाहती क्या है.
जीव क्रिया में है तब तक साकार है जैसे ही क्रिया विहीन हो जाता है निराकार है साकार में चार तत्व और जुड़ जाते है निराकार में एक ही तत्व होता है,वह द्रश्य भी हो सकता है और अद्रश्य भी हो सकता है.लोगो की भावना द्रश्य को अन्जवाने की होती है और अद्रश्य को समझाने की होती है,अद्रश्य को समझाने के लिए वह अपनी अलावा शक्तियों को प्रयोग में लाता है,वह अग्नि को प्रयोग करने के लिए हवन यग्य का प्रयोग करता है और उससे मिलने वाले फलो में साकार रूप देखता है वह अग्नि में जले हुए पृथ्वी तत्वों को सूक्ष्म रूप में वायुमंडल में फैलाने की क्रिया को करता है,जव वह तत्व कार्बन रूप में फ़ैलाने लगते है और एक स्थान पर इकट्ठे हो जाते है और प्रकृति की चल क्रिया के द्वारा उनका रूप गोलाकार अथवा पिंड के रूप में द्रश्य होने लगता है वही पिंड या गोलाकार पिंड का रूप कार्बन के रूप में विभिन्न तत्वों से पूर्ण होने के कारण शिव लिंग का रूप धारण कर लेता है,वह सूक्ष्म कणों के रूप में अरबो तत्वों के रूप में साकार तभी होता है जब वह अपने अनुसार सकारात्मक रूप को अद्रश्य रूप से उन्हें अपनी शक्ति देने लगता है जो देखने में तो सकारात्मक अथवा क्रिया रूप में मिलते है लेकिन उनके अन्दर खुद को साकार समझने में परेशानी होती है.
भावना से ही विश्व का निर्माण हुआ है,कोइ अपनी भावना को शरीर में देखने लगता है कोइ अपनी भावना को वाणी के रूप में प्रकट करने लगता है कोइ अपनी भावना को सोचने के बाद क्रिया में लाना शुरू कर देता है.जैसी भावना जो करता है उसी रूप में वह रूप को देखने लगता है,भेडिया की भावना में जब भूख होती है तो वह अपने से कमजोर जीव को भोजन के रूप में देखने लगता है उसी भावना के अनुसार वह उस जीव को मार कर खा जाता है,लेकिन जब उसी स्थान पर उसे दूसरा भेडिया अपने को मारने के लिए ताकतवर के रूप में दिखाई देने लगता है तो वह या तो भाग जाता है या दूसरे शक्तिशाली भेडिये के द्वारा मार दिया जाता है,मादा रूप में अपनी भावना से देखे जाने पर वह सम्भोग की इच्छा को करता है और मादा के साथ सहसवास करने के बाद अपनी संख्या की उत्पत्ति को बढ़ाकर एनी भेडियों का निर्माण भी करता है.जब तक भावना उसके अन्तः करण में मौजूद होती है वह अपने को क्रिया में लगाए रहता है जैसे ही भावना का अंत होता है वह या तो बीमार होकर मर जाता है या अन्य जीवो के द्वारा मार दिया जाता है.
पशु और मनुष्य में भेद केवल बुद्धि का है वह बुद्धि के अनुसार अपनी भावना को बना भी सकता है और बिगाड़ भी सकता है लेकिन पशु के अन्दर बुद्धि केवल अपने शरीर के पालन के लिए ही मानी जाती है जबकि मनुष्य की बुद्धि से अपने शरीर के साथ साथ अपने विश्व बंधुत्व के रूप में मनुष्य जगत को आगे बढाने की क्रिया को देखा जाता है.शिव साकार होता है तो वह मनुष्य की भावना को वृहद रूप में आगे बढाने की क्रिया में शामिल हो जाता है शिव जब निराकार होता है और उस निराकार में जब शिव की भावना उत्तेजित हो जाती है तो वह अपनी तीसरी आँख के प्रयोग से सामने की भावना को जलाकर भी समाप्त कर सकता है.बुरी भावना को जलाना और समाप्त करना वह तीसरी आँख से ही सम्बन्ध रखती है और वही तीसरी आँख बुद्धि से सोच कर क्रिया में लाने वाली बात की पूरक है,कोइ माथे में तीसरी आँख खुलती नहीं देखी जाती है लेकिन जो सोचा जाता है उस सोच के अन्दर क्या अच्छा है क्या बुरा है इस बात का निराकरण कर लिया जाता है तो बेकार की सोच को समाप्त करने के लिए उसी तीसरी आँख का प्रयोग किया जाता है,जैसे जब बहुत ही बड़े विचारों की श्रंखला चल रही हो और उस समय अगर विचारो को तोड़ा जाए तो झल्लाहट आती है उस झल्लाहट में अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी हो सकता है.
आज कमन्यूकेशन का ज़माना है जो भी कमन्यूकेशन को पहिचानता है वह अपनी भावना को प्रकट करने के लिए किसी भी समय अपने को किसी के भी सामने प्रस्तुत करने लगता है,जरूरी नहीं है की सामने वाला भी अपने को कमन्यूकेशन के लिए तैयार करके ही बैठा हो,वह भावना के अनुसार फोन की घंटी बजने के साथ ही अक्समात ही भावना को ज़िंदा करने लगता है.अगर भावना जागृत हो जाती है तो बात कर ली जाती है और भावना जागृत होने में कोइ कठिनाई होती है तो कोइ न कोइ कारण बनाकर फोन को काट दिया जाता है.खुद निर्णय लेना और प्रकृति के द्वारा निर्णय लेना दोनों अलग अलग बाते है,खुद की भावना भी बात करने की है और जो बात करना चाहता है उसकी भी भावना बात करने की बन रही है लेकिन प्रकृति नहीं चाहती है तो जब बात करने की भावना से फोन को लगाया जाएगा तो कोइ न कोइ परेशानी फोन खराब होने की लाइन नहीं मिलाने की या सामने वाले फोन में कोइ दिक्कत आने की बात भी मिल सकती है,इस प्रकार से भावना को उजागर करने के लिए प्रकृति की भी सहायता की जरूरत होती है.जब हम अपने अनुसार भावना को जागृत नहीं कर पाते है तो हम प्रकृति के ऊपर अपनी भावना को प्रकट करने के लिए अपने को ले जाते है वही प्रकृति शिव रूप में शिवालय में भी हो सकती है गिरजाघर में ईसा के रूप में भी हो सकती है मस्जिद में अल्लाह के रूप में भी हो सकती है आश्रम में गुरु के रूप में भी हो सकती है,गुरुद्वारा में गुरु ग्रन्थ साहब के रूप में भी हो सकती है.नाम कुछ भी हो वह भावना ही भगवान का रूप बनाती है.
पुराने जमाने में आज के जैसे साधन नहीं होते थे तो अपनी भावना को द्रश्य रूप में प्रेषित किया जाता था उस समय बिजली बैटरी से चलने वाले साधन नहीं हुआ करते थे और न ही आज की तरह से सिलीकोन वाले उपकरण बनाकर मोबाइल आदि का रूप देकर भावना को भेजा जा सकता था,उस समय एक उपाय बहुत ही काम में लिया जाता था जिसे बहुत ही कम लोग जानते होंगे की अपनी भावना को अद्रश्य रूप में किसी के पास भेजने के लिए काले धतूरे के रस में गोरोचन को मिलाकर सफ़ेद कनेर की ताजा कलम से जिसमे कनेर का दूध निकल रहा हो से अपनी भावना को भोजपत्र पर लिखा जाता था और उस भोजपत्र को मंद अग्नि पर तपाया जाता था,तपाने का एक समय हुआ करता था उस तपाने की क्रिया के अन्दर उस भावना को और उस व्यक्ति का ध्यान लगातार किया जाता था,यह क्रम कई दिन भी करना पड़ सकता था,परिणाम में जिस भावना का जिस व्यक्ति से जोड़ना होता था वह भावना उस व्यक्ति के अन्दर प्रकट होने लगती थी,जो कार्य करवाना होता था वह कार्य जब हो जाता था तो जिस व्यति से जो भावना जोड़ी जाती थी और अगर वह भावना उस व्यक्ति की भावना से पिपरीत होती थी तो वह व्यक्ति बाद में सोचता था की उस भावना को वह कतई नहीं चाहता था लेकिन उससे वह भावना पूर्ण कैसे हो गयी,जैसे कोइ सरकारी आदेश किसी से लेना था और सरकारी आदेश को वह सरकारी व्यक्ति नहीं देना चाहता था लेकिन वह उस आदेश को देने के बाद सोचता था की वह आदेश उसके द्वारा नहीं दिया जाना था लेकिन उसने दे कैसे दिया.जो होना था वह तो हो ही गया था इसलिए भावना को प्रकट करने के लिए कई प्रकार के अन्य उदाहरण भी देखने को मिलते है.
द्रश्य रूप में काले पर सफ़ेद रंग बहुत जल्दी दिखाई देता है,शिव लिंग काला होता है और शिव लिंग पर जो शिव नेत्र आदि की कलातमक त्रिपुंड नामक तिलक लगाया जाता है वह सफ़ेद चन्दन या केले की भस्म से लगाया जाता है,उस तिलक को लगाने के समय एक भावना मन के अन्दर लाई जाती थी की तिलक ईश्वर को लगाया गया है तिलक महेश्वर को लगाया गया है तिलक के लगाने के बाद भावना से जो भी तिलक को देखेगा वह शिव की जय जय करने लगेगा,इस भावना से शिव की जय जय कार में वह खुद के अन्दर भी जय जयकार का उद्घोष सुनता था,यही जय जयकार उसके लिए वरदान बन जाती थी और उसकी भी जय जयकार होने लगती थी.शिव साकार है,शव निराकार है,भावना रूपी प्राण है तो भावना क्रिया में है वही साकार होने का प्रमाण है.(नमः शिवाय ॐ)
जीव क्रिया में है तब तक साकार है जैसे ही क्रिया विहीन हो जाता है निराकार है साकार में चार तत्व और जुड़ जाते है निराकार में एक ही तत्व होता है,वह द्रश्य भी हो सकता है और अद्रश्य भी हो सकता है.लोगो की भावना द्रश्य को अन्जवाने की होती है और अद्रश्य को समझाने की होती है,अद्रश्य को समझाने के लिए वह अपनी अलावा शक्तियों को प्रयोग में लाता है,वह अग्नि को प्रयोग करने के लिए हवन यग्य का प्रयोग करता है और उससे मिलने वाले फलो में साकार रूप देखता है वह अग्नि में जले हुए पृथ्वी तत्वों को सूक्ष्म रूप में वायुमंडल में फैलाने की क्रिया को करता है,जव वह तत्व कार्बन रूप में फ़ैलाने लगते है और एक स्थान पर इकट्ठे हो जाते है और प्रकृति की चल क्रिया के द्वारा उनका रूप गोलाकार अथवा पिंड के रूप में द्रश्य होने लगता है वही पिंड या गोलाकार पिंड का रूप कार्बन के रूप में विभिन्न तत्वों से पूर्ण होने के कारण शिव लिंग का रूप धारण कर लेता है,वह सूक्ष्म कणों के रूप में अरबो तत्वों के रूप में साकार तभी होता है जब वह अपने अनुसार सकारात्मक रूप को अद्रश्य रूप से उन्हें अपनी शक्ति देने लगता है जो देखने में तो सकारात्मक अथवा क्रिया रूप में मिलते है लेकिन उनके अन्दर खुद को साकार समझने में परेशानी होती है.
भावना से ही विश्व का निर्माण हुआ है,कोइ अपनी भावना को शरीर में देखने लगता है कोइ अपनी भावना को वाणी के रूप में प्रकट करने लगता है कोइ अपनी भावना को सोचने के बाद क्रिया में लाना शुरू कर देता है.जैसी भावना जो करता है उसी रूप में वह रूप को देखने लगता है,भेडिया की भावना में जब भूख होती है तो वह अपने से कमजोर जीव को भोजन के रूप में देखने लगता है उसी भावना के अनुसार वह उस जीव को मार कर खा जाता है,लेकिन जब उसी स्थान पर उसे दूसरा भेडिया अपने को मारने के लिए ताकतवर के रूप में दिखाई देने लगता है तो वह या तो भाग जाता है या दूसरे शक्तिशाली भेडिये के द्वारा मार दिया जाता है,मादा रूप में अपनी भावना से देखे जाने पर वह सम्भोग की इच्छा को करता है और मादा के साथ सहसवास करने के बाद अपनी संख्या की उत्पत्ति को बढ़ाकर एनी भेडियों का निर्माण भी करता है.जब तक भावना उसके अन्तः करण में मौजूद होती है वह अपने को क्रिया में लगाए रहता है जैसे ही भावना का अंत होता है वह या तो बीमार होकर मर जाता है या अन्य जीवो के द्वारा मार दिया जाता है.
पशु और मनुष्य में भेद केवल बुद्धि का है वह बुद्धि के अनुसार अपनी भावना को बना भी सकता है और बिगाड़ भी सकता है लेकिन पशु के अन्दर बुद्धि केवल अपने शरीर के पालन के लिए ही मानी जाती है जबकि मनुष्य की बुद्धि से अपने शरीर के साथ साथ अपने विश्व बंधुत्व के रूप में मनुष्य जगत को आगे बढाने की क्रिया को देखा जाता है.शिव साकार होता है तो वह मनुष्य की भावना को वृहद रूप में आगे बढाने की क्रिया में शामिल हो जाता है शिव जब निराकार होता है और उस निराकार में जब शिव की भावना उत्तेजित हो जाती है तो वह अपनी तीसरी आँख के प्रयोग से सामने की भावना को जलाकर भी समाप्त कर सकता है.बुरी भावना को जलाना और समाप्त करना वह तीसरी आँख से ही सम्बन्ध रखती है और वही तीसरी आँख बुद्धि से सोच कर क्रिया में लाने वाली बात की पूरक है,कोइ माथे में तीसरी आँख खुलती नहीं देखी जाती है लेकिन जो सोचा जाता है उस सोच के अन्दर क्या अच्छा है क्या बुरा है इस बात का निराकरण कर लिया जाता है तो बेकार की सोच को समाप्त करने के लिए उसी तीसरी आँख का प्रयोग किया जाता है,जैसे जब बहुत ही बड़े विचारों की श्रंखला चल रही हो और उस समय अगर विचारो को तोड़ा जाए तो झल्लाहट आती है उस झल्लाहट में अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी हो सकता है.
आज कमन्यूकेशन का ज़माना है जो भी कमन्यूकेशन को पहिचानता है वह अपनी भावना को प्रकट करने के लिए किसी भी समय अपने को किसी के भी सामने प्रस्तुत करने लगता है,जरूरी नहीं है की सामने वाला भी अपने को कमन्यूकेशन के लिए तैयार करके ही बैठा हो,वह भावना के अनुसार फोन की घंटी बजने के साथ ही अक्समात ही भावना को ज़िंदा करने लगता है.अगर भावना जागृत हो जाती है तो बात कर ली जाती है और भावना जागृत होने में कोइ कठिनाई होती है तो कोइ न कोइ कारण बनाकर फोन को काट दिया जाता है.खुद निर्णय लेना और प्रकृति के द्वारा निर्णय लेना दोनों अलग अलग बाते है,खुद की भावना भी बात करने की है और जो बात करना चाहता है उसकी भी भावना बात करने की बन रही है लेकिन प्रकृति नहीं चाहती है तो जब बात करने की भावना से फोन को लगाया जाएगा तो कोइ न कोइ परेशानी फोन खराब होने की लाइन नहीं मिलाने की या सामने वाले फोन में कोइ दिक्कत आने की बात भी मिल सकती है,इस प्रकार से भावना को उजागर करने के लिए प्रकृति की भी सहायता की जरूरत होती है.जब हम अपने अनुसार भावना को जागृत नहीं कर पाते है तो हम प्रकृति के ऊपर अपनी भावना को प्रकट करने के लिए अपने को ले जाते है वही प्रकृति शिव रूप में शिवालय में भी हो सकती है गिरजाघर में ईसा के रूप में भी हो सकती है मस्जिद में अल्लाह के रूप में भी हो सकती है आश्रम में गुरु के रूप में भी हो सकती है,गुरुद्वारा में गुरु ग्रन्थ साहब के रूप में भी हो सकती है.नाम कुछ भी हो वह भावना ही भगवान का रूप बनाती है.
पुराने जमाने में आज के जैसे साधन नहीं होते थे तो अपनी भावना को द्रश्य रूप में प्रेषित किया जाता था उस समय बिजली बैटरी से चलने वाले साधन नहीं हुआ करते थे और न ही आज की तरह से सिलीकोन वाले उपकरण बनाकर मोबाइल आदि का रूप देकर भावना को भेजा जा सकता था,उस समय एक उपाय बहुत ही काम में लिया जाता था जिसे बहुत ही कम लोग जानते होंगे की अपनी भावना को अद्रश्य रूप में किसी के पास भेजने के लिए काले धतूरे के रस में गोरोचन को मिलाकर सफ़ेद कनेर की ताजा कलम से जिसमे कनेर का दूध निकल रहा हो से अपनी भावना को भोजपत्र पर लिखा जाता था और उस भोजपत्र को मंद अग्नि पर तपाया जाता था,तपाने का एक समय हुआ करता था उस तपाने की क्रिया के अन्दर उस भावना को और उस व्यक्ति का ध्यान लगातार किया जाता था,यह क्रम कई दिन भी करना पड़ सकता था,परिणाम में जिस भावना का जिस व्यक्ति से जोड़ना होता था वह भावना उस व्यक्ति के अन्दर प्रकट होने लगती थी,जो कार्य करवाना होता था वह कार्य जब हो जाता था तो जिस व्यति से जो भावना जोड़ी जाती थी और अगर वह भावना उस व्यक्ति की भावना से पिपरीत होती थी तो वह व्यक्ति बाद में सोचता था की उस भावना को वह कतई नहीं चाहता था लेकिन उससे वह भावना पूर्ण कैसे हो गयी,जैसे कोइ सरकारी आदेश किसी से लेना था और सरकारी आदेश को वह सरकारी व्यक्ति नहीं देना चाहता था लेकिन वह उस आदेश को देने के बाद सोचता था की वह आदेश उसके द्वारा नहीं दिया जाना था लेकिन उसने दे कैसे दिया.जो होना था वह तो हो ही गया था इसलिए भावना को प्रकट करने के लिए कई प्रकार के अन्य उदाहरण भी देखने को मिलते है.
द्रश्य रूप में काले पर सफ़ेद रंग बहुत जल्दी दिखाई देता है,शिव लिंग काला होता है और शिव लिंग पर जो शिव नेत्र आदि की कलातमक त्रिपुंड नामक तिलक लगाया जाता है वह सफ़ेद चन्दन या केले की भस्म से लगाया जाता है,उस तिलक को लगाने के समय एक भावना मन के अन्दर लाई जाती थी की तिलक ईश्वर को लगाया गया है तिलक महेश्वर को लगाया गया है तिलक के लगाने के बाद भावना से जो भी तिलक को देखेगा वह शिव की जय जय करने लगेगा,इस भावना से शिव की जय जय कार में वह खुद के अन्दर भी जय जयकार का उद्घोष सुनता था,यही जय जयकार उसके लिए वरदान बन जाती थी और उसकी भी जय जयकार होने लगती थी.शिव साकार है,शव निराकार है,भावना रूपी प्राण है तो भावना क्रिया में है वही साकार होने का प्रमाण है.(नमः शिवाय ॐ)
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